क्या मुगलों के अत्याचार की निशानी है ढोलना…? 2 मिनट का समय निकालकर Thread अंत तक अवश्य पढ़े।

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मुगलिया सल्तनत बेशक अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उसके अत्याचारों का कहानियां अब भी जीवित हैं। उन्होंने और पश्चिम एशिया से आए दूसरे मुस्लिम आक्रमणकारियों ने न केवल भारत का बेशकीमती खजाना लूटा बल्कि देश की सभ्यता-संस्कृति को भी नष्ट करने की पुरजोर कोशिश की। उनके उन अत्याचारों का प्रतीक ढोलना भी है। मंगलसूत्र की तरह गले में पहना जाने वाला यह आभूषण पूर्वी यूपी, बिहार और झारखंड में सुहागिनों की निशानी माना जाता है। ढोलना के बगैर विवाह अधूरा माना जाता है। कोई गहना हो या न हो, ढोलना जरूर होना चाहिए।


उस समय विवाह के बाद जब लड़की की विदाई होती तो रास्ते में मुगल सैनिक विवाहिता को अगवा कर लेते थे। अतः उनसे बचने के लिए ढोलना का प्रचलन शुरू हुआ। तब अफवाह फैलाई गई कि ढोल या ताबीज के आकार वाले इस गहने में महिलाएं सूअर के बाल भरकर पहनती हैं। मुसलमान सूअर को नापाक मानते हैं इसलिए सूअर के बाल पहनने की वजह से मुगल ऐसी महिलाओं को छूने से बचते थे। आज भी विवाह की रस्म बगैर ढोलना के अधूरी मानी जाती है।


पटना के पंडित धीरेंद्र शास्त्री जी कहते हैं कि मंगलसूत्र को तो सभी जानते हैं, लेकिन ढोलना का क्षेत्र सीमित है। ऐसे में कुछ इलाकों में ही इसका प्रचलन है। लाल धागे में ढोल के आकार में ताबीज जैसा होता है। ढोलना के बीच में कुछ लड़ियां लगी होती हैं। अमूमन शादी के मंडप में दूल्हे का बड़ा भाई (जेठ) इसे विवाहिता को देता है। आज भी कोई भी शुभ अवसर हो तो विवाहिता ढोलना जरूर पहनती है।


जमशेदपुर के आचार्य पंडित सच्चिदानंद ओझा इसका पौराणिक महत्व भी बताते हैं। कहते हैं कि प्राचीन काल से ढोल प्रमुख वाद्य यंत्रों में शामिल रहा है। कई इलाकों में ढोल के बगैर कोई शुभ कार्य नहीं होता। हमारे सभी देवी-देवाताओं के पास वाद्य यंत्र हैं। भगवान विष्णु जी के पास शंख, शिव जी के पास डमरू, नारद जी के पास एकतारा तथा माता सरस्वती जी के पास वीणा है, तो भगवान श्रीकृष्ण के पास बांसुरी। ऐसे ही प्रथम पूज्य भगवान श्री गणेश के पास ढोल है। वहीं से ढोल के आकार के ढोलना का प्रचलन शुरू हुआ। आततायी आए तो सूअर के बालों वाली बात अफवाह फैलाई गई। ढोलना पहनने वाली स्त्रियों के आसपास भी मुगल नहीं आते थे। और यही कारण है कि यह हमारी परंपरा का महत्वपूर्ण अंग बन गया।


प्रयागराज में रहने वाले रिटायर्ड संगीत शिक्षक रविकांत शुक्ल जी ढोलना से जुड़ा एक किस्सा बताते हैं। ढोल सागर ग्रंथ में जिक्र है कि ढोल का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने किया था। सूर्य और चंद्रमा के रूप में इसके दोनों ओर खाल लगाई गई थी। जब ढोल बन गया तो भगवान शंकर ने खुश होकर नृत्य किया। तब उनके पसीने से एक कन्या 'औजी' पैदा हुई। उन्हें इस ढोल को बजाने की जिम्मेदारी दी गई। औजी ने ही इस ढोल को उलट-पलट कर चार शब्द— वेद, बेताल, बाहु और बाईल का निर्माण किया था। विवाह बेहद शुभ संस्कार है। ढोल की इसी शुद्धता और पौराणिक इतिहास की वजह से ऐसे मौके पर ढोलना का प्रचलन शुरू हुआ। हम बहुत पहले से ढोलना जैसे गहने पहनते रहे हैं।


आदि गुरु शंकराचार्य की प्रसिद्ध पुस्तक ‘सौंदर्य लहरी’ में भी मंगलसूत्र और ढोलना का जिक्र मिलता है। वहां से पता चलता है कि छठी शताब्दी में इन दोनों गहनों का प्रचलन शुरू हुआ था। जैसे-जैसे वक्त बदला, इन दोनों गहनों के स्वरूप और चलन का क्षेत्र भी बदलता रहा। मंगलसूत्र तो देश के अधिकतर हिस्सों में पहना जाता है, लेकिन ढोलना का क्षेत्र सीमित हो गया।


भाषा विशेषज्ञों की राय इतिहासकारों से थोड़ी अलग है। कहते हैं कि बिहार, झारखंड या पूर्वी यूपी नहीं, ढोलना का उदय राजस्थान की तरफ हुआ था। यह राजस्थानी भाषा का शब्द है। बिहार, झारखंड या पूर्वी यूपी में राजस्थानी भाषा का कभी प्रभाव नहीं रहा। राजस्थानी भाषा में ढोलना का अर्थ प्रेमी या साजन होता है। राजस्थान के प्रेम गीतों में भी कई जगह ढोलना का इस्तेमाल हुआ है।


इतिहासकारों का मानना है कि मुगलों ने हमारी कई परंपराओं का स्वरूप बदल दिया। शास्त्रों के अनुसार, सभी शुभ कार्य दिन के समय ही होने चाहिए। यही कारण था कि सीता और द्रौपदी का स्वयंवर भी दिन में ही हुआ था। मुगल आए तो दिन में विवाह-समारोह होने पर आक्रमण कर देते थे। विदाई के समय कई बार लड़कियों को अगवा कर लिया जाता था। ऐसे आक्रमणों से बचने के लिए रात्रि में विवाह किया जाने लगा। विदाई भी तारों की रोशनी में होती थी। कहते हैं कि रास्ते में कई बार मुगल सैनिक बारात को लूट लेते थे। तब दुल्हन के गले में ढोलना देखकर दूर ही रहते थे। ढोलना के प्रचलन की एक वजह गरीबी भी मानी जाती है।


विवाह में भव्यता और दिखावे का चलन पहले से रहा है। किसी लड़की की ससुराल से गहनों का कितना चढ़ावा आया, यह चर्चा का विषय होता था। आंगन में गहनों की संख्या गिनी जाती थी। इतिहासकार बताते हैं कि गहनों का चढ़ावा देखने के लिए पूरा गांव और आसपास की भीड़ जुटती थी। पुरोहित जोर-जोर से आवाज देकर गहनों की संख्या गिनते थे। यही संख्या बढ़ाने के लिए कुछ छोटे गहने चलन में आए। ताग-पाट और ढोलना उनमें से ही एक है।


पौराणिक महत्व के साथ ही दोनों गहने बेहद कम कीमत में तैयार हो जाते हैं। ऐसे में आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति भी गहनों की गिनती बढ़ाने में सक्षम हो जाता था। ढोलना एक ऐसे आभूषणों में से है जिसका आकार हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों की परंपराओं से मेल खाता है। यही वजह है कि ढोलना पर कई कहानियां और किंवदंतियां हैं। ताबीज से जुड़ी ऐसी ही एक कहानी को जोड़ा जाता है। अधिकांश मुगल अक्सर ताबीज पहनते थे।


उनका जोर इस्लाम कबूल कराने पर होता था। गैर-इस्लामिक लड़कियों पर अत्याचार आम बात थी। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हिंदुओं के खुद को इस्लामिक दिखाने से भी ढोलना का चलन बढ़ गया। ताबीज से लगभग मिलता-जुलता स्वरूप होने की वजह से कई बार लड़कियां खुद को हिंदू नहीं, मुस्लिम बताकर बचने में कामयाब हो जाती थीं।

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