आजकल देश में युवा पीढ़ी पर अश्लील वीडियो और सोशल मीडिया पर गंदी तस्वीरों का नकारात्मक असर बढ़ता जा रहा है। फर्जी आईडी से सोशल मीडिया पर गलत कंटेंट साझा किया जा रहा है, जिससे युवाओं और बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो रहा है। इससे न केवल समाज की सांस्कृतिक धारा प्रभावित हो रही है, बल्कि रिश्तों की मर्यादा भी टूट रही है।
इंटरनेट पर दिखाई जाने वाली अश्लील वेबसाइटों के बारे में सरकार ने शुरू में बहुत ही अच्छा रवैया अपनाकर 857 अश्लील वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन फिर उसने सिर्फ बच्चों की अश्लील वेबसाइटों पर अपने प्रतिबंध को सीमित कर दिया। सूचना एवं तकनीकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसकी घोषणा की। सरकार ने यह शीर्षासन क्यों किया…?
सरकार ने यह शीर्षासन किया, अंग्रेजी अखबारों और चैनलों की हायतौबा के कारण! किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह अश्लीलता के समर्थकों का विरोध करें। इससे साफ जाहिर होता है कि स्वतंत्र भारत में भी दिमागी गुलामी की जड़ें कितनी गहरी और हरी हैं।
आप यदि अंग्रेजी में कोई अनुचित और ऊटपटांग बात भी कहें, तो वह मान ली जाएगी। मुझे आश्चर्य है कि संसद और विधानसभाओं में भी किसी नेता ने इस मुद्दे को नहीं उठाया। देश में संस्कृति और नैतिकता का झंडा उठाने वाली संस्थाओं-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आर्यसमाज और गांधी-संस्थाओं की चुप्पी भी आश्चर्यजनक है।
सारे साधु-संतों, मुल्ला-मौलवियों, ग्रंथियों और पादरियों का मौन भी चौकाने वाला है। शायद इसका कारण यह भी हो सकता है कि इन्हें पता ही न हो कि इंटरनेट पोर्नोग्राफी क्या होती है। यह तो इंदौर के वकील कमलेश वासवानी की हिम्मत है कि उन्होंने इस मामले को अदालत में लाकर अश्लील वेबसाइटों के माथे पर तलवार लटका दी है।
यदि जनता के दबाव के आगे कोई सरकार झुकती है तो इसे मैं अच्छा ही कहूंगा। इसका मतलब यही है कि सरकार तानाशाह नहीं है। भूमि-अधिग्रहण विधेयक पर भी सरकार ने लचीले रवैए का परिचय दिया है, लेकिन अश्लीलता के सवाल पर क्या सरकार यह कह सकती है कि वह लोकमत का सम्मान कर रही है…?
दस-बीस अंग्रेजी अखबारों में छपे लेखों और लगभग दर्जन भर चैनलों की हायतौबा को क्या 140 करोड़ लोगों की राय मान लिया जा सकता है…?
इसके पहले कि सरकार अपने सही और साहसिक कदम से पीछे हटती, उसे एक व्यापक सर्वेक्षण करवाना चाहिए था, सांसदों की एक विशेष जांच समिति बिठानी चाहिए थी, अपने मार्गदर्शक मंडल से सलाह करनी चाहिए थी। ऐसा किए बिना एकदम पल्टी खा जाना किस बात का सूचक है…?
एक तो इस बात का कि वह सोच-समझकर निर्णय नहीं लेती और जो निर्णय लेती है, उस पर टिकती नहीं है यानी उसका आत्म-विश्वास डगमगा रहा है। यदि मोदी सरकार का यह हाल है तो देशवासी अन्य सरकारों से क्या उम्मीद कर सकते हैं…?
अब संघ स्वयंसेवकों की यह सरकार अपनी पीठ खुद ठोक रही है कि हमने वेबसाइट आपरेटरों को नया निर्देश दिया है कि वे बच्चों से संबंधित अश्लील वेबसाइटों को बंद कर दें। बेचारे आपरेटर परेशान हैं।
वे कहते हैं कि कौन-सी वेबसाइट बाल-अश्लील है और कौन-सी वयस्क-अश्लील हैं, यह तय करना मुश्किल है। सिर्फ बाल-अश्लील वेबसाइटों पर प्रतिबंध को अदालत और सरकार दोनों ही उचित क्यों मानती हैं…?
उनका कहना है कि इसके लिए बच्चों को मजबूर किया जाता है। वह हिंसा है। लालच है। मैं पूछता हूं कि वयस्क वेबसाइटों पर जो होता है, वह क्या है…?
ये वयस्क वेबसाइटें क्या औरतों पर जुल्म नहीं करतीं…? औरतों के साथ जितना वीभत्स और घृणित बर्ताव इन वेबसाइटों पर होता है, उसे अश्लील कहना भी बहुत कम करके कहना है। पुरुष भी स्वेच्छा या प्रसन्नता से नहीं, पैसों के लिए अपना ईमान बेचते हैं।
उन सब स्त्री-पुरुषों की मजबूरी, क्या उन बच्चों की मजबूरी से कम है…?
हमारी सरकार के एटार्नी जनरल अदालत में खड़े होकर बाल-अश्लीलता के खिलाफ तो बोलते हैं, जो कि ठीक है, लेकिन महिला-अश्लीलता के विरुद्ध उनकी बोलती बंद क्यों है…?
यह बताइए कि इन चैनलों को देखने से आप बच्चों को कैसे रोकेंगे…? इन गंदे चैनलों के लिए काम करने वाले बच्चों की संख्या कितनी होगी…? कुछ सौ या कुछ हजार…? लेकिन इन्हें देखने वाले बच्चों की संख्या करोड़ों में है।
क्या आपको अपने इन बच्चों की भी कुछ परवाह है या नहीं…?
सारे अश्लील वेबसाइटों पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन पैसे की खदान है। यह पैसा सरकारों को भी बंटता है। सरकारें ऐसे वेबसाइटों को इसलिए भी चलाते रहना चाहती हैं कि जनता का ध्यान बंटा रहे।
उसके दिमाग में बगावत के बीज पनप न सकें। रोमन साम्राज्य के शासकों ने अपनी जनता को भरमाने के लिए हिंसक मनोरंजन के कई साधन खड़े कर रखे थे।
पश्चिम के भौतिकवादी राष्ट्रों ने अपनी जनता को अश्लीलता की लगभग असीम छूट इसीलिए दे रखी है कि वे लोग अपने में ही मगन रहें, लेकिन इसके भयावह दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। हिंसा और दुष्कर्म के जितने अपराधी अमेरिकी जेलों में बंद हैं, दुनिया के किसी देश में नहीं हैं।
यह तर्क बहुत ही कमजोर है कि सरकार का काम लोगों के शयन-कक्षों में ताक-झांक करना नहीं है। लोग अपने शयन-कक्ष में जो करना चाहें, करें। इससे बढ़कर गैर-जिम्मेदाराना बात क्या हो सकती है…?
क्या अपने शयन-कक्ष में आप हत्या या आत्महत्या कर सकते हैं…? क्या दुष्कर्म कर सकते हैं…? क्या मादक-द्रव्यों का सेवन कर सकते हैं…?
ताक-झांक का सवाल ही तब उठेगा, जबकि आप गंदी वेबसाइटें छुप-छुपकर देख रहे हों। जब गंदी वेबसाइटों पर प्रतिबंध होगा तो कोई ताक-झांक करेगा ही क्यों…?
उसकी जरुरत ही नहीं होगी। हर शयन-कक्ष की अपनी पवित्रता होती है। वहां पति और पत्नी के अलावा किसका प्रवेश हो सकता है…?
यदि आप गंदी वेबसाइटों को जारी रखते हैं तो उनसे आपका चेतन और अचेतन इतने गहरे में प्रभावित होगा कि वह कमरों की दीवारें तोड़कर सर्वत्र फैल जाएगा।
यह अश्लीलता मनोरंजक नहीं, मनोभंजक है। यही हमारे देश में दुष्कर्म और व्याभिचार को बढ़ा रही है। यदि यह अश्लीलता अच्छी चीज है तो इसे आप अपने बच्चों, बहनों और बेटियों के साथ मिलकर क्यों नहीं देखते…?
आप ने सिनेमा पर सेंसर क्यों बिठा रखा है…?
आप लोगों को पशुओं की तरह सड़कों पर ऐसा करने की अनुमति क्यों नहीं देते…?
यह तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सर्वोच्च उपलब्धि होगी! अश्लील पुस्तकें तो बहुत कम लोग पढ़ पाते हैं।
अश्लील वेबसाइटें तो करोड़ों लोग देखते हैं। आपको पहले किस पर प्रतिबंध लगाना चाहिए…?
इन अश्लील वेबसाइटों की तुलना खजुराहों और कोणार्क की प्रतिमाओं तथा महर्षि वात्स्यायन के कामसूत्र से करना अपनी विकलांग बौद्धिकता का सबूत देना है। कामसूत्र काम को कला के स्तर पर पहुंचाता है।
उसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का अंग बनाता है। वह काम का उदात्तीकरण करता है जबकि ये अश्लील वेबसाइटें काम को घृणित, फूहड़, यांत्रिक और विकृत बनाती हैं।
काम के प्रति भारत का रवैया बहुत खुला हुआ है।
वह वैसा नहीं है, जैसा कि अन्य देशों का है।
उन संपन्न और शक्तिशाली देशों को अपनी दबी हुई काम-पिपासा अपने ढंग से शांत करने दीजिए।
आप उनका अंधानुकरण क्यों करें…?
किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह अश्लीलता के समर्थकों का विरोध करे। जाहिर है कि स्वतंत्र भारत में भी दिमागी गुलामी की जड़ें कितनी गहरी और हरी हैं।
आप यदि कोई अनुचित बात अंग्रेजी में कहें तो वह भी मान ली जाएगी।
इन अश्लील चैनलों के लिए काम करने वाले बच्चों की संख्या कुछ हजार होगी, लेकिन इन्हें देखने वाले बच्चों की संख्या करोड़ों में है। क्या आपको अपने इन बच्चों की कुछ भी परवाह नहीं है…?
यह तर्क बहुत ही कमजोर है कि लोग अपने शयन-कक्ष में जो करना चाहें, करें। इससे बढ़कर गैर-जिम्मेदाराना बात क्या हो सकती है…? क्या अपने शयन-कक्ष में आप हत्या या आत्महत्या कर सकते हैं…?
अश्लीलता के विनियमन से संबंधित कानून भारत में पहले से बने हुए हैं
BNS 2023 की धारा 296 : इसमें सार्वजनिक रूप से अश्लील कृत्य करने, साथ ही सार्वजनिक रूप से अश्लील गीत, गाथागीत या शब्द कहने, सुनाने या बोलने या दूसरों को परेशान करने के उद्देश्य से ऐसा करने पर दंड का प्रावधान किया गया है।
इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विकृति या अपसंस्कृति के सामान्यीकरण या ‘कूल’ कहने के ऐसे प्रयास लंबे समय से हो रहे हैं। दुर्भाग्य से किशोर और युवा पीढ़ी धीरे-धीरे इनके जाल में फंसती जा रही है।
यह चिंताजनक है कि अश्लीलता को कूल बताने वाले इंटरनेट मीडिया इन्फ्लुएंसरों के फालोअर्स लाखों-करोड़ों में हैं। हालांकि इन क्रिएटर्स या इन्फ्लुएंसर्स में कोई जिम्मेदारी का भाव नहीं दिखता।
चिंता की बात यही नहीं कि उनकी घृणित टिप्पणियों को भी खूब वाहवाही मिलती है, बल्कि यह भी है कि माता-पिता के प्रति जो सम्मान-सेवा का भाव होता है या परिवार में जो सहज उदात्त परिवेश होता है, उसे ऐसे कंटेंट-कथ्य ध्वस्त करने में लगे हैं। ‘परिवार व्यवस्था’ जो भारतीय समाज-संस्कृति की आधारशिला और सबसे बड़ी शक्ति रही है, उस पर आज अनजाने में या जानबूझकर भी चोट हो रही है।
चूंकि ऐसी सामग्री से भारतीय सामाजिक संतुलन के ही अस्तित्व पर संकट खड़ा किया जा रहा है, इसलिए समय आ गया है कि डिजिटल कंटेंट की निगरानी की जाए। हमें इस तरह की सामग्री की सीमाएं तय करनी होंगी।
जो लोग अभिव्यक्ति की आजादी की दलील देते हैं, वे समझ लें कि संविधान में ही अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत “शिष्टाचार या नैतिकता” के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध की गुंजाइश विद्यमान है।
ऐसे प्रतिबंध मुख्य रूप से अश्लीलता, अनैतिकता और सामाजिक मर्यादा से जुड़े मामलों में लागू होते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने ‘रंजन द्विवेदी बनाम भारत संघ’ वाद (2017) में कहा भी था कि अश्लीलता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में संतुलन जरूरी है और सार्वजनिक शालीनता को ठेस पहुंचाने वाले कंटेंट पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
यह बात फिल्म, साहित्य, कला और इंटरनेट मीडिया पर भी लागू होती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर संस्कारहीनता, मूल्यहीनता और अपसंस्कृति की छूट नहीं दी जा सकती। पारिवारिक मर्यादा एवं सामाजिक संतुलन को चोट न पहुंचे, यह भारतीय समाज के अस्तित्व के लिए तो जरूरी है ही, विकसित भारत के लिए भी अनिवार्य है।
यदि इस प्रकार के ग़लत कंटेंट पर रोकथाम नहीं लगाई गई, तो आने वाले वर्षों में बच्चों और युवाओं पर इसका नकारात्मक असर बढ़ेगा, और उनका भविष्य खराब हो सकता है। साथ ही, यह हमारे देश की संस्कृति और समाजिक रिश्तों को भी प्रभावित कर रहा है।
अश्लीलता मुक्त भारत के अभियान में 20 अप्रैल को दिल्ली के जंतर-मंतर में विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया जाएगा, जिसमें देशभर से विभिन्न संगठन और समाजिक कार्यकर्ता भाग लेंगे। साथ ही मेरा सभी सनातनियों से निवेदन है कि आप भी अधिक से अधिक संख्या में आएं और हमारे इस मिशन को सफ़ल बनाने में सहयोग करें।
जय भवानी, हर हर महादेव, जय श्री राम की
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श्री आशीष रामाश्रय शुक्ल जी
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